तपती दोपहर में कॉलेज वाली सड़क पर तुम अपनी बस छोड़कर मेरे साथ पैदल चल देती थी .....
अपनी बड़ी बड़ी आँखों से मुझे देखते हुए पुरे रस्ते मुस्कराती थी
और फिर धुप से बचने के लिए अपने दुपट्टे को सर से ओढ़ कर उसके दोनों कोने दांतों से चबाती थी ....
रस्ते का वो बरगद का पेड़ जहाँ बैठकर मेरे कन्धों पर अपना सर सुस्ताती थी ....
मैं चुपके चुपके से तुम्हारा धुप में गुलाबी हुआ चेहरा देखता था ......
पर तुम हमेशा की तरह अपनी ढेर सारी हास्टल की बातों का पिटारा खोल देती थी ......
जब हास्टल आ जाता था तो मुझे समझाते हुए गली के मोड़ से वापस भेज देती थी ...
पर वो गुलाब की कली जो मैं कॉलेज के फूलों से तोड़ के तुम्हे देता था …
तुम्हारे बालों में लगी वो कली मुझे दूर तक मुझे दिखती रहती थी ......
आज इस तपती दोपहर में फिर आया हूँ इस कॉलेज वाली सड़क पर ....
पर आज मैं पैदल नहीं हूँ ....तुम्हे बस नहीं छोडनी पड़ेगी ....
पर आज ये सड़क सुनसान है ....और पूछ रही है मुझसे कहाँ हो तुम ....
मैं क्या बताऊँ इस कॉलेज वाली सड़क को .....इस तपती दोपहर में ......
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